Wednesday 5 March 2014

अजनबी

कुछ बेचैनी थी साँसों में और आँखों में नमी भी थी
ना सुकून दिनों में था और ना रातों को नींद ही थी

सज़ा किसको क्या दी थी मैं खुद भी नहीं जानती थी
अपनी खुशियाँ लुटा के न जाने किसने  किसको खुशियाँ दी थी

एक एहसास है सीने में दबा ना ज़ाहिर हुआ  न भुला ही पायी थी
खुद से लड़ते झगड़ते न जाने हमने खुद को ही क्या बददुआ दी थी

न इंतज़ार रहा कभी किसी का न एहतराम था किसी से हमको
क्यों कर के हालत बिगड़े थे खुद से ही क्यों मैं अजनबी हुयी थी