इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
इक मुसाफिर अपने शहर से जैसे निकल गया,
मंजिल की खोज में फिरता है दर-बदर,
कभी थक के कहीं बैठ गया, कभी फिर मीलों तन्हा चला गया।।।
इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
अँधेरी बस्ती में, कम तेल में जैसे इक दीप जल गया
उजाले बांटने में हवाओं से लड़ता है बेपनाह,
कोई जलता देख गया, कोई बुझता छोड़ गया।।
इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
मंदिर में जैसे कोई फ़रियाद कर गया,
चुपचाप खड़ा है, सर भी झुका है,
कोई अपनी ही कह गया, कोई उसकी भी सुन गया।।
इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
ऊँचे पहाड़ पर जैसे बादल सा घिर गया,
खूब झूम के बरसा है हर ओर हर तरफ,
पहले मस्त वो नचा बारिश को देख कर, टूटी थी झोपडी फिर जी भर के रो दिया।।।