इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
इक मुसाफिर अपने शहर से जैसे निकल गया,
मंजिल की खोज में फिरता है दर-बदर,
कभी थक के कहीं बैठ गया, कभी फिर मीलों तन्हा चला गया।।।
इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
अँधेरी बस्ती में, कम तेल में जैसे इक दीप जल गया
उजाले बांटने में हवाओं से लड़ता है बेपनाह,
कोई जलता देख गया, कोई बुझता छोड़ गया।।
इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
मंदिर में जैसे कोई फ़रियाद कर गया,
चुपचाप खड़ा है, सर भी झुका है,
कोई अपनी ही कह गया, कोई उसकी भी सुन गया।।
इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,
ऊँचे पहाड़ पर जैसे बादल सा घिर गया,
खूब झूम के बरसा है हर ओर हर तरफ,
पहले मस्त वो नचा बारिश को देख कर, टूटी थी झोपडी फिर जी भर के रो दिया।।।
Wah yaar , , aap toh achha likh leti hain , ,
ReplyDeleteshukriya... :) :)
DeleteNihaayat hi khoobsurat! :)
ReplyDeleteI loved this, though it is on the blue side.
Keep writing! :)
- Sameer
shukriya sameer.. :)
Deleteवो मेरी दुआ कोई और थी , ये तेरी अता कोई और है .. जिसे मैंने माँगा मिला नहीं , जो मुझे मिला कोई और है!
ReplyDeleteये कलाम दिल का गुबार है जिसे तू समझता है शायरी .. मेरा हादसा कोई और है तेरा तब्सरा कोई और है!
waah... ye kalaam dil ka gubaar hai jise tu samajhta hai shayari.. bohot khoob
DeleteLoved it....beautifully scripted....the lastl line is amazingly set...superrrrbbb one dear..
ReplyDeleteshukriya :)
Deletewow.. meenu 1nce again marvellous... :)
ReplyDeleteshukriya :)
Deletekaafi aacha laga padh kar suruwaat kaafi aachi hai bas aap todasa last lines me depress dikhi apne apne view ko toda sa short kar diya
ReplyDeletePoem ki soul ko samajhne ki koshish kijiye... :)
DeleteMast Likha Hai... :)
ReplyDeleteShukriya :)
DeleteAwesome!
ReplyDeleteShukriya Ashish :)
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