Sunday, 13 January 2013

इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा


इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,

इक मुसाफिर अपने शहर से जैसे निकल गया, 
मंजिल की खोज में फिरता है दर-बदर, 
कभी थक के कहीं बैठ गया, कभी फिर मीलों तन्हा चला गया।।।

इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा,

अँधेरी बस्ती में, कम तेल में जैसे इक दीप जल गया 
उजाले बांटने में हवाओं से लड़ता है बेपनाह,
कोई जलता देख गया, कोई बुझता छोड़ गया।।

इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा, 

मंदिर में जैसे कोई फ़रियाद कर गया,
चुपचाप खड़ा है, सर भी झुका है,
कोई अपनी ही कह गया, कोई उसकी भी सुन गया।।

इक दौर यादों का कुछ यूँ चल पड़ा, 

ऊँचे पहाड़ पर जैसे बादल सा घिर गया,
खूब झूम के बरसा है हर ओर हर तरफ,
पहले मस्त वो नचा बारिश को देख कर, टूटी थी झोपडी फिर जी भर के रो दिया।।।

17 comments:

  1. Wah yaar , , aap toh achha likh leti hain , ,

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  2. Nihaayat hi khoobsurat! :)
    I loved this, though it is on the blue side.
    Keep writing! :)

    - Sameer

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  3. वो मेरी दुआ कोई और थी , ये तेरी अता कोई और है .. जिसे मैंने माँगा मिला नहीं , जो मुझे मिला कोई और है!
    ये कलाम दिल का गुबार है जिसे तू समझता है शायरी .. मेरा हादसा कोई और है तेरा तब्सरा कोई और है!

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    1. waah... ye kalaam dil ka gubaar hai jise tu samajhta hai shayari.. bohot khoob

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  4. Loved it....beautifully scripted....the lastl line is amazingly set...superrrrbbb one dear..

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  5. wow.. meenu 1nce again marvellous... :)

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  6. kaafi aacha laga padh kar suruwaat kaafi aachi hai bas aap todasa last lines me depress dikhi apne apne view ko toda sa short kar diya

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    1. Poem ki soul ko samajhne ki koshish kijiye... :)

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