कुछ बेचैनी थी साँसों में और आँखों में नमी भी थी
ना सुकून दिनों में था और ना रातों को नींद ही थी
ना सुकून दिनों में था और ना रातों को नींद ही थी
सज़ा किसको क्या दी थी मैं खुद भी नहीं जानती थी
अपनी खुशियाँ लुटा के न जाने किसने किसको खुशियाँ दी थी
अपनी खुशियाँ लुटा के न जाने किसने किसको खुशियाँ दी थी
एक एहसास है सीने में दबा ना ज़ाहिर हुआ न भुला ही पायी थी
खुद से लड़ते झगड़ते न जाने हमने खुद को ही क्या बददुआ दी थी
खुद से लड़ते झगड़ते न जाने हमने खुद को ही क्या बददुआ दी थी
न इंतज़ार रहा कभी किसी का न एहतराम था किसी से हमको
क्यों कर के हालत बिगड़े थे खुद से ही क्यों मैं अजनबी हुयी थी
क्यों कर के हालत बिगड़े थे खुद से ही क्यों मैं अजनबी हुयी थी
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