Monday, 11 August 2014

अँधेरा

चारों तरफ घना अँधेरा था
सन्नाटे को चीरती एक खामोशी फैली थी उस कमरे में 
कुछ दिख नही रहा था 
मगर महसूस किया जा सकता था

एक कोने में बैठा वो सोच रहा था
के अब करे तो क्या करे
कैसे इस कमरे से बाहर निकले
कैसे इस कमरे को रौशनी से भरे

कुछ सूझता नही था उसे
फिर सोचा के दरवाज़ा खोल दे
तो शायद अँधेरा दूर हो जायेगा

दरवाज़ा खोलते ही
और गहरे अँधेरे ने कमरे को घेर लिया
किसी और का दिखना तो दूर
खुद को देखना भी मुश्किल हो गया

बहुत अकेला सा महसूस कर रहा था वो
फिर भी एक रौशनी की तलाश में
वो डरता, काँपता आगे बढ़ने लगा

लेकिन हर अगला कदम से
उसे और गहरा अँधेरा महसूस हो रहा था
जैसे के फिर इस बार उस ने
गलत रास्ता चुन लिया हो

एक डर लिए दिल में वो बढ़ा जा रहा है
लेकिन जाने कितने अंधेरों में
और वो खोया जा रहा है

कभी लगता के
शायद अब रौशनी करीब है
लेकिन वो और अँधेरे में
तब्दील होती गयी

हर कदम पे
और गहराता अँधेरा था
हर कदम पे वो खुद को
खुद से थोड़ा और खोता गया

2 comments: